Safe Spaces

by | Jun 29, 2020 | blog | 0 comments

Contributed by: Safwan

Safe space- ये एक ऐसा शब्द है जो अपने आप में ही सुरक्षा का भाव देता है| ये हर आयु के लोगों के लिए आवश्यक  है | ये और आवश्यक तब हो जाता है जब आप समूह में काम कर रहे हों तो, क्यूंकि तब आप अलग-अलग पृष्ठभूमि से सम्बंधित लोगों के साथ काम कर रहे होते हैं| इस ‘space’ को बनने में थोड़ा समय लगता है और साथ ही साथ व्यक्तिगत तौर पर इसको बनने के अलग-अलग पैमाने हो सकते हैं | अगर इसकी सही परिभाषा की बात करें तो ‘ऐसा स्थान या वातावरण जिसमें कोई व्यक्ति या उस श्रेणी से सम्बंधित व्यक्ति यह विश्वास कर सकता है कि वे भेदभाव, आलोचना, उत्पीड़न या किसी अन्य भावनात्मक या शारीरिक नुकसान का सामना उन्हें यहाँ नहीं करना पड़ेगा’ ।

हमारे कार्यक्रम में इस जगह को बनाने कि ख़ास कोशिश रहती है जिससे बच्चा अपने मूल व्यक्तित्व को सामने ला सके जिसमे उसको आँका न जाए और उसको उसी के रूप में स्वीकार किया जा सके | ऐसा ‘space’ हमारे सेशंस में प्रायः देखने को मिलता है, जहाँ पर हमारे बच्चे ऐसा कह जाते हैं या कर जाते हैं जिस पर विश्वास करना मुश्किल होता है| हर किसी को इस प्रकार के स्थान की आवश्यकता होती है और हमारे बच्चों के लिए यह उनके भावनात्मक जुड़ाव के लिए इतना अभिन्न है कि वे साझा करने के लिए एक सुरक्षित स्थान खोजने में सक्षम हो जाते हैं। इस बात पर बल देना आवश्यक है कि उस स्थान को कैसे बनाया जाए ताकि बच्चे स्वेच्छा से आपके पास आएं और चीजों के बारे में बात कर सकें|

ऐसा ही हमारे कई लोकेशन में से एक, जहाँ मंजू नाम कि एक लड़की जिसे बौद्धिक अक्षमता (intellectual disability) है| आरम्भ के दिनों में वो थोड़ा डरी सहमी सी रहती थी | अधिकतर समय वो सेशन का दूर से ही अवलोकन किया करती थी, परन्तु कुछ बोलती नहीं थी या हद से अधिक फैसिलिटेटर के अभिवादन का जवाब सिर हिला के ही देती थी और इससे अधिक कुछ नहीं | शायद उसे डर लगता हो कि जाने पर पता नहीं क्या हो, मेरे साथ पता नहीं कैसा व्यव्हार किया जाए, मै उन जैसी हूँ भी या नहीं या मुझे भगा न दिया जाए आदि आदि | कई महीनो कि इस दिमागी जद्दोजहद के बाद आखिर एक दिन गतिविधि को देखते देखते उत्साह  में अपनी जगह से खड़ी हो गई और हर दिन से अलग प्रतिक्रिया दी| कुछ हफ्तों के बाद से उसकी शारीरिक भाषा में बदलाव दिखाई देने लगा | फिर तो वो धीरे-धीरे गतिविधियों का हिस्सा भी बनने लगी और उसको ये सुरक्षित स्थान प्रदान करने में फैसिलिटेटर  और उसके साथियों ने भरपूर साथ दिया | अब वो कभी-कभी गतिविधि का हिस्सा बनती है और यहाँ तक कि fun relays (जिसमें गति अधिक होती है) में भी भाग लेती है | हमें अभी तक यकीन नहीं है कि क्या बदल गया है, लेकिन वह हमारे सत्र में इसका हिस्सा बनने और खुद को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त सुरक्षित महसूस कर रही होगी।

मेरा मानना है कि हमारी भाषा व क्रियाएं ये सहज स्थान बनाती है। हम जिन शब्दों का उपयोग करते हैं, वे हमारे द्वारा बनाए गए वर्णनों का निर्माण करते हैं, और वे कथन हमारे जीवन के मापदंडों को परिभाषित करते हैं। बातों को साझा करने और खुले रहने की प्रक्रिया एक अभ्यास है जिसे हम सभी को विकसित करना है। हमारे बच्चों के लिए भी यही प्रक्रिया होती है और मंजू इस प्रक्रिया से गुज़र रही है कि कैसे इस दुनिया को अपनाया जाए और वो इसके अनुकूल हो | इसको समझने में जीवन और जटिल होता है और इसमें ज़रूरत होती है खुलासे की, स्पष्टीकरण की | हम इस संतुलन को बनाये रखने की कोशिश में हैं जिससे वो अपने आप को खोने के बजाए खुद को विकसित कर सके | किसी भी ‘educator’ के लिए आसान काम नहीं!